राजस्थान में बाजरा बुवाई के लिए उपयुक्त जलवायु महत्व एवं उपयोग:
राजस्थान में बाजरा बुवाई के लिए उपयुक्त जलवायु मोटे दाने वाली खाद्यान्य फसलों में बाजरा एक महत्वपूर्ण फसल है इसे गरीबों का भोजन भी कहा जाता है। बाजरा में 11.6 प्रतिशत प्रोटीन, 5 प्रतिशत वसा, 67 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट तथा 2.7 प्रतिशत खनिज लवण पाया जाता है बाजरे के पौधे का प्रयोग हरे तथा सूखे चारे के रूप में पशुओं को खिलाने के लिये किया जाता है।
जलवायु :
बाजरा आम तौर पर कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उगाया जाता है। इसकी खेती 40 से 200 सेमी० तक वर्षा वाले स्थानों पर की जा सकती है। पौधे की बढ़वार के समय नम तथा उष्ण जलवायु अधिक अच्छी होती है। फसल के लिये बुवाई से लेकर कटाई तक उच्च तापक्रम की आवश्यकता होती है। बाजरे की फसल के लिये सबसे उपयुक्त तापक्रम 28 से 32° सेन्टीग्रेड होता है।
भूमि का चुनाव :
बाजरे की फसल अच्छे जल निकास वाली सभी भूमियों में उगाई जा सकती है। इसकी खेती हल्की बलुई दोमट एवं दोमट भूमि इसके लिये अच्छी होती है। अम्लीय भूमि इसकी खेती के लिये उपयुक्त नहीं होती है।
भूमि की तैयारी :
सर्व प्रथम मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई करने के बाद 2 से 3 जुताई हैरो या कल्टीवेटर से करके मिट्टी को भुरमुरी बना लें और बुवाई से पहले पाटा चलाकर खेत को समतल अवश्य कर लेना चाहिए।
बीज की मात्रा :
एक हे० खेत की बुवाई के लिये 4 से 5 किग्रा० बीज पर्याप्त होता है। किसान भाई इस बात का ध्यान रखें कि सदैव प्रमाणित बीज का ही इस्तेमाल करें।
बीज शोधन :
बुवाई से पूर्व बीज को किसी आर्गेनो मरक्यूरियल यौगिक जैसे थीरम एग्रोसन जी० एन०, कैप्टान या सेरेसान मे से किसी एक दवा की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति किग्रा० बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए। अर्गट के दानों को अलग करने के लिये बीज को 20 प्रतिशत नमक के घोल में डुबोकर अलग कर लेना चाहिए।
बुवाई का समय :
वर्षा ऋतु में बाजरे की बुवाई के लिये 15 जुलाई से 15 अगस्त तक का समय उपयुक्त होता है। लेकिन यह गर्मी ऋतु में भी उगाया जाता है।
बुवाई की विधि :
बुवाई हमेशा केंड में हल के पीछे या सीड ड्रिल द्वारा करनी चाहिए। लाइन से लाइन की दूरी 45 सेमी०, पौध से पौध की दूरी 10 से 15 सेमी० तथा गहराई 3-4 सेमी० सुनिश्चित करें। इस तरह से प्रति हे० पौधे की संख्या 1,75,000 से 2,00,000 तक होती है।
खाद एवं उर्वरक :
बाजरे की फसल से बेहतर उत्पादन के लिये प्रति हे0 80-100 किग्रा० नत्रजन, 40 किग्रा० फास्फोरस तथा 40 किग्रा० पोटाश का प्रयोग करना चाहिए। असिंचित क्षेत्रों में नत्रजन की मात्रा घटाकर 60-80 किग्रा०/हे० कर देना चाहिए क्यों कि पानी के अभाव में पौधे नत्रजन का पूरा उपयोग नहीं कर पाते।
बाजरे की फसल में जैविक खाद प्रयोग करने से भूमि में पानी को रोकने की क्षमता बढ़ जाती है अतः प्रति हे0 100 से 150 कुन्तल कम्पोस्ट/सठी गोबर की खाद प्रयोग करना चाहिए। फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय देना चाहिए तथा नत्रजन की कुल मात्रा की एक तिहाई मात्रा बुवाई के समय अन्य खादो के साथ मिलाकर देते हैं। एक तिहाई भाग बुवाई के 20-25 दिन बाद खड़ी फसल में टापड्रेसिंग के रूप में तथा एक तिहाई भाग बालियां निकलते समय देने से बेहतर उपज प्राप्त होता है।
छटनी तथा निराई-गुढ़ाई:
जमाव हो जाने के बाद यदि किसी कारण से लाइन में रिक्त स्थान हो तो घने पौधों को निकालकर रिक्त स्थान पर रोपाई कर देनी चाहिए। निराई गुड़ाई करके खरपतवार भी निकाल देना चाहिए। खरपतवार का नियंत्रण रासायनिक विधि द्वारा भी किया जा सकता है इसके लिये प्रति हे० एट्राजिन 500 ग्राम मात्रा को 500-600 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के बाद परन्तु जमाव के पूर्व छिड़काव करें।
सिंचाई :
बाजरे की फसल सामान्यतः असिंचित क्षेत्र में उगाई जाती है फसल में सिंचाई की आवश्यकता विशेषकर फूल आते समय पड़ती है यदि उस समय भूमि में पर्याप्त नमी न हो तो आवश्यकतानुसार 1 या 2 सिचाई कर देनी चाहिए।
कटाई एंव मड़ाई:
बाजरे की विभिन्न प्रजातियां 75-95 दिन में पक कर तैयार होती है। खड़ी फसल में हसिया की सहायता से बाली काट कर या खेत से पहले फसल काटकर खलिहान में लायें इसके बाद बालियां काट ली जाती है। दानों में नमी की मात्रा 20 प्रतिशत रहने पर बालियां खेत से काटनी चाहिए। बालियों को खेत में सुखाकर मढ़ाई बैलो द्वारा या थ्रेशर से कर लेते हैं। अनाज का भण्डारण करने के लिये दानों में 10 से 12 प्रतिशत से अधिक नमी नहीं रहनी चाहिए।
उपज :
देशी उन्नतशील जातियों से दाने की उपज 15 से 20 कुन्तल व संकर प्रजातियों से दाने की औसत उपज 30 से 35 कुन्तल प्रति हे० तक प्राप्त हो जाती है। हरा चारा 250 से 300 कुन्तल प्राप्त हो जाती है। सूखी कड़बी की उपज 80 से 125 कुन्तल प्रति हे० प्राप्त हो जाती है।
फसल सुरक्षा :
वैसे बाजरे में कोई खास कीट एवं बीमारियों का प्रकोप नहीं होता फिर भी कुछ रोग एवं कीट हानि पहुँचाते है जिसका समय से नियंत्रण करके बेहतर उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
हरी बाली रोग :
यह रोग बीज और मिट्टी दोनो के द्वारा फैलता है इस रोग में पहले लक्षण पत्तियों पर और फिर बालियों पर दिखाई पड़ता है पत्तियों का रंग पहले पीला या सफेद और बाद में कत्थई भूरा हो जाता है रोगग्रस्त पौधों की बढ़वार रूक जाती है पूरी बाली या बाली का कुछ हिस्से हरे रंग की छोटी तथा मुड़ी हुई पत्तियों की तरह गुच्छों के रूप में परिवर्तित हो जाती है। इसके नियंत्रण के लिये फसल पर 2 किग्रा० प्रति हे० जीनेब या मैकोजेब का का घोल 500 से 600 लीटर पानी में बनाकर छिड़काव करें।
कण्डुआ रोग :
इस रोग के आक्रमण से दानों के स्थान पर काला काला चूर्ण (फफूँद के जीवाणु) मर जाता है। इस रोग के जीवाणु हवा द्वारा फैलते हैं और फसल में इसका आक्रमण फूल आने के समय होता है। इसके नियंत्रण के लिये 1 मिली प्रति लीटर पानी की दर से प्लान्ट वैक्स का बालियों पर छिड़काव करना भी प्रभावकारी सिद्ध हुआ है। कण्डुआ रोग से ग्रसित बालियों को काटकर जला देना चाहिए और एक ही खेत में प्रत्येक वर्ष बाजरे की फसल लगातार नहीं उगानी चाहिए।
अर्गट बीमारी:
इस बीमारी का प्रकोप फूल आने के समय होता है। इसके आक्रमण से फूलों में से हल्के गुलाबी रंग का गाढ़ा तथा चिपचिपा जैसा द्रव निकलता है जो सूखने के बाद बालियों पर कड़ी परत सी बना लेता है परिणामस्वरूप बालियों में दाने नहीं बनते। इसके नियंत्रण के लिये रोग के शुरूवात में ही रोगग्रसित बालियों को काटकर जला देना अथवा जमीन में गाड़ देना चाहिए।
दीमक :
बाजरे की फसल में दीमक का भी प्रकोप होता है इसके नियंत्रण के लिये बुवाई के समय ही 5 प्रतिशत एलड्रिन की 20 से 25 किग्रा० मात्रा प्रति हे० की दर से कुंडों में डालना चाहिए।